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‘शुद्ध आर्यों’ के गांव
अल जजीरा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, लद्दाख की राजधानी लेह से 163 किमी दक्षिण पश्चिम में स्थित बियामा, गारकोन, दारचिक, दाह और हानू गांव हैं। इन गावों में ब्रोकपा समुदाय के लोग रहते हैं, जिनका दावा है कि वे दुनिया के आखिरी बचे हुए ‘शुद्ध आर्य’ हैं। नस्लीय श्रेष्ठता से ग्रस्त इस विवादित दावे को ब्रोकपा अपने सिर ताज मानते हैं। वे इस बात को न सिर्फ सहर्ष स्वीकार करते हैं, बल्कि गर्व भी महसूस करते हैं।
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अब सवाल उठता है कि यह शुद्ध आर्य क्या है? दरअसल, नाज़ी-युग के नस्लीय सिद्धांतकारों ने शुद्ध नस्ल को “मास्टर रेस” से कहा था। इसी आधार पर जर्मनी में यहूदियों का नरसंहार किया गया था। मास्टर रेस वालों की कथित खासियत यह मानी जाती है कि वे लंबे होते हैं, गोरे होते हैं, आंखें नीली होती हैं और जबड़े मजबूत होते हैं। वह कथित तौर पर अधिक इंटेलिजेंट भी होते हैं।
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2017 में भारत सरकार की ITBP (Indo-Tibetan Border Police) ने ब्रोकपा समुदाय के कुछ लोगों और उनके गांव की तस्वीर शेयर करते हुए लिखा था, “लद्दाख स्थित दुर्लभ रेड आर्यन का घर। दारचिक गांव में ऐतिहासिक ब्रोकपा आदिवासी समुदाय।” ब्रोकपा लद्दाख की बहुसंख्यक मंगोलीयन फीचर वाली आबादी से अलग दिखते भी हैं। स्थानीय भाषा में ब्रोकपा का मतलब घुमंतू होता है।
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ब्रोकपा बौद्ध होने के बावजूद देवी-देवताओं में यकीन करते हैं। वे आग की पूजा करते हैं। उनके यहां बलि देने की भी प्रथा है। वे गाय से ज्यादा बकरी को पवित्र मानते हैं।
प्रेगनेंसी टूरिज्म
इंटरनेट के आगमन से पहले ब्रोकपाओं को लेकर कोई खास क्रेज नहीं था। इंटरनेट के प्रसार के बाद लद्दाख के गावों में जर्मन महिलाओं के आने के किस्से मशहूर हुए। बताया जाने लगा कि जर्मन महिलाएं ‘शुद्ध आर्य बीज’ के लिए ब्रोकपाओं के गावों में आती हैं।
साल 2007 में फिल्मकार संजीव सिवन की 30 मिनट की डॉक्यूमेंट्री “Achtung Baby: In Search of Purity” रिलीज हुई। डॉक्यूमेंट्री में एक जर्मन महिला कैमरे पर स्वीकार करती है कि वह ‘शुद्ध आर्य शुक्राणुओं’ की तलाश में लद्दाख आयी है।
डॉक्यूमेंट्री की शूटिंग सिवन के लिए बिल्कुल भी आसान नहीं थी। एक भारतीय कर्नल की मदद से, उन्होंने लेह के एक रिसॉर्ट में ब्रोकपा आदमी के साथ छुट्टियां मना रही एक जर्मन महिला का पता लगाया। जिस व्यक्ति के साथ जर्मन महिला छुट्टी मान रही थी, वह दारचिक (कथित रेड आर्यन विलेज) का रहने वाला था। तब गांव में विदेशियों को आसानी से जाने की अनुमति नहीं थी।
यही वजह थी कि दोनों ने लेह में ठहरे हुए थे। सिवन को दोनों के एक साथ घूमने की गुप्त फुटेज शूट करनी पड़ी और फिर महिला को बात करने के लिए राजी करना पड़ा। ब्रोकपा समुदाय के व्यक्ति को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि उसकी वीडियो बनाई जा रही है।
डॉक्यूमेंट्री में महिला बताती है कि एक आर्यन बच्चे को जन्म देने के लिए इतनी दूर यात्रा करने आने वाली पहली जर्मन महिला नहीं है और ना ही आखिरी। वह बताती है कि कैसे इस प्रेगनेंसी टूरिज्म के पीछे एक पूरा ऑर्गनाइज सिस्टम काम कर रहा है। लेकिन वह इस बारे में विस्तार से बताने से इनकार करती हैं। वह कहती है कि “मैं जो कर रही हूं यह गलत नहीं है। मैं जो चाहती हूं उसके लिए पेमेंट भी कर रही हूं।”
सिवन की डॉक्यूमेंट्री में जर्मन महिला ने न केवल उस व्यक्ति को उसकी सेवाओं के लिए भुगतान किया था, बल्कि वह इतनी दयालु थी कि वह उसके परिवार और बच्चों के लिए उपहार भी लायी थी। ब्रोकपा आदमी इस चीज से खुश था। वह कहते हैं, “मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं है। मैं यह काम करता रहना चाहूंगा। एक दिन मेरे बच्चे मुझसे मिलने आएंगे और मुझे जर्मनी ले जाएंगे।”
डॉक्यूमेंट्री में जर्मन महिला का चेहरा नहीं दिखाया गया है। हालांकि, ब्रोकपा आदमी को आसानी से पहचाना जा सकता है। वह कारगिल जिले के दारचिक गांव का रहने वाला है। उसका नाम त्सेवांग लुंडुप है।
इस डॉक्यूमेंट्री से इतर बीबीसी ने अपनी ग्राउंड रिपोर्ट में एक ब्रोकपा दुकानदार के दावे को दर्ज किया है। दुकानदार का दावा है कि कुछ साल पहले उससे एक जर्मन महिला मिली थी। दोनों साथ में लेह के होटल में रहे थे। गर्भवती होने के बाद वह जर्मनी वापस चली गई। कुछ साल बाद अपने बच्चे के साथ मिलने आई।”
दावा और प्रमाण
जाहिर है ब्रोकपाओं के दावे का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं। उनकी कोई डीएनए जांच नहीं हुई है। सिर्फ लद्दाखी संस्कृति से अलग होने की वजह से उन्हें ‘शुद्ध आर्य’ नहीं माना जा सकता है। वे केवल अपनी शारीरिक बनावट और अपने शुद्ध आर्य होने के बारे में विरासत में मिली कुछ कहानियों, लोककथाओं और मिथकों के आधार पर शुद्ध आर्य होने का दावा करते हैं। ब्रोकपा लोगों के दावे किसी भी वैज्ञानिक प्रमाण या विश्वसनीय इतिहास द्वारा समर्थित नहीं हैं। लेकिन फिर भी, वे अपने दावों के साथ मजबूती से खड़े हैं।
दूसरी बात यह कि आर्यों को लेकर इतिहास भी बँटा हुआ है। इंडियाना के डेपॉव विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान की एसोसिएट प्रोफेसर मोना भान मानती हैं कि प्रेगनेंसी टूरिज्म जैसी कहानियां गढ़ गई हैं।